धन की सेवा The service of your real Assets

यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि ममीषिणाम् ।।


श्री गीता जी १८/५
यज्ञ, दान और तप इन तीन कर्मों को कभी भी किसी भी अवस्था मे त्यागना नही चाहिये; क्योंकि यह तीनों कर्म मनीषियों को भी पवित्र करने वाले हैं।

दान के भी कई रूप हैं। जिन्हें श्रद्धापूर्वक अपना कर मनुष्य अपना कल्याण कर सकता हैं।
अन्नदान :- भूखे लोगों को भोजन करवाना और अन्यत्र जगहों पर अन्न क्षेत्र का निर्माण करना इत्यादि।
जलदान :- प्यासों को जल पिलवाना, कूप,वापी,तड़ाग बनवाना,प्याऊ लगवाना इत्यादि।
भूमिदान :- गौमाता के लिये गोचर भूमि छोड़ना एवम विद्यालय एवम अस्पताल के लिये भूमि का दान करना।
गोदान :- किसी भी पूण्य कार्य की सफलता के लिये एवम पाप की निवृत्ति के लिये गोदान करना एवम गायों के भरण पोषण हेतु जल एवम चारे की व्यवस्था करना।
कणदान :- कबूतर आदि पक्षियों को चुगने के लिये अन्नकण चिंटीओ को आटा,मछलियों को आटे की गोली विकीर्ण करना इत्यादि।
विद्यादान :- बालक बालिकाओ को सुशिक्षित श्रेष्ठ नागरिक बनाने हेतु विद्यालय पुस्तकालय आदि का निर्माण करना। भारतीय संस्कृति के उन्नयन के लिये वेद विद्यालय संस्कृत विद्यालय स्थापित करना। निर्धन छात्रों की आर्थिक सहायता करना इत्यादि।
दया :- किसी भी निर्धन एवम रुग्ण अथवा अपंग अथवा अभावग्रस्त व्यक्ति को शारीरिक एवम आर्थिक सेवा प्रदान कर सुख सुख पहुँचाने का प्रयास करना।
रोगी व्यक्ति :-  जाति-कुल-शील-मित्र-शत्रु के समस्त बन्धनों से ऊपर होता हैं। अतः उचित औषधि एवम पथ्य का पालन करते हुए निष्ठा पूर्वक निस्वार्थ भाव से की गई रोगी की सेवा चित्त को अपूर्व आनन्द देती हैं।

पंचबलि एवं बलिवैशवदेव:-  हमारे शास्त्रों में इनका विधान हैं, जिसे प्रतिदिन करना चाहिये। इसके द्वारा भावनात्मकरूप से त्रिलोकी के सम्पूर्ण देवों, गंधर्वों, पित्र एवम प्राणियों की तृप्ति हो जाती हैं।

पंचबलि में गौग्रास स्वान (कुत्ता) का ग्रास,काक (कौवा) का ग्रास कीट पतंग चींटी के ग्रास एवम अथिति के भाग को निकालने का विधान हैं।
इसप्रकार सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को संतृप्त करके भोजन करने का विधान हैं।

यज्ञशिस्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुज्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।
गीता जी ३/१३

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